मूर्तिपूजा और बहुविवाह को कुरीति मानते हुए इस्लाम का उदय इन कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए हुआ था। एक महत्वपूर्ण प्रश्न, जो अक्सर उठता है, यह है कि इस्लाम धर्म में प्रचलित बहुविवाह की प्रथा का अंत कब होगा? पवित्र कुरान में लिखा गया है, “हमने पुरुषों को स्त्रियों पर हाकिम बनाया है,” जो इस्लामी समाज में पुरुषों के अधिकारों की एक स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करता है। हालांकि, “हमने” शब्द का आधुनिक संदर्भ में अर्थ समझना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
लगभग 1400 वर्ष पूर्व, जब इस व्यवस्था ने असीमित पत्नीत्व को चार पत्नियों तक सीमित किया था, वह उस समय के सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में प्रासंगिक थी। लेकिन वर्तमान समय में यह व्यवस्था अप्रचलित हो चुकी है, क्योंकि आज का समाज स्त्री-पुरुष के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को अस्वीकार करने और समान अधिकारों को अपनाने की ओर अग्रसर है।
अब यह सवाल उठता है कि जब प्रत्येक मुसलमान पुरुष को एक समय में चार पत्नियाँ रखने का अधिकार है, तो उस समाज में क्या स्थिति होगी, जहाँ महिलाएं इस प्रकार के भेदभाव को नकारते हुए समान अधिकारों की मांग करेंगी? इसके विपरीत, इस्लामी कानून (Art. 255 और 256, मुल्ला मुस्लिम कानून) पत्नी को यह अधिकार नहीं देता कि वह एक समय में एक से अधिक पति रख सके। यह स्पष्ट रूप से महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 में उल्लिखित समानता के सिद्धांत के विपरीत है।
इसलिए, बहुविवाह जैसी असमान और पुरानी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए एक सशक्त और संगठित आवाज उठनी चाहिए। यदि यह आवाज समाज के भीतर से उठे, तो परिवर्तन की प्रक्रिया अधिक सहज और प्रभावी हो सकती है। जब समाज खुद अपनी असमानताओं और कुरीतियों को पहचानकर उन्हें दूर करने के लिए तत्पर होता है, तो बदलाव तेज़ी से संभव हो जाता है।
यह आवश्यक है कि मुस्लिम समाज एकजुट होकर इस प्रकार की असमान और पिछड़ी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए प्रयास करे, ताकि एक समान और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण हो सके।
मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि आलेख का उद्देश्य प्रथा की आलोचना करना नहीं, बल्कि समानता और न्याय की बात करना है।
✍ दिलीप कुमार
अधिवक्ता
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