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Dispute Eater Theory of Judicial Reform Part-01

व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 में आवश्यक संशोधनों द्वारा सिविल वादों के त्वरित निष्पादन की दिशा में एक पहल.

Adv. Dilip Kumar by Adv. Dilip Kumar
September 24, 2025
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Dispute Eater Theory of Judicial Reform Part-01
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व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 में आवश्यक संशोधनों द्वारा सिविल वादों के त्वरित निष्पादन की दिशा में एक पहल

भारतीय न्याय प्रणाली में सिविल वादों का लंबा समय तक लंबित रहना एक गंभीर समस्या बनती चली जा रही है। इसमें सर्वाधिक बाधाओं में से एक बाधा प्रतिवादी की मृत्यु के पश्चात उनके विधिक प्रतिनिधियों को प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया के कारण उत्पन्न होती है। इस प्रक्रिया में प्रायः 18 माह से 24 माह तक का समय व्यतीत हो जाता है, जिसके कारण न्याय की गति अवरुद्ध होती है और “देर से मिला न्याय अधूरा न्याय”  की स्थिति उत्पन्न होती है।

Dispute Eater Theory of Judicial Reform इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करती है, जिसके अंतर्गत व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 की कुछ धाराओं/आदेशों में आवश्यक संशोधन कर सिविल वादों के त्वरित निष्पादन का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।

सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की वर्तमान खामी: –

वादी एवं प्रतिवादी के बीच असमानता:

  1. वादी की मृत्यु के बाद की स्थिति।

वादी की मृत्यु पर उनके विधिक प्रतिनिधि स्वेच्छा से न्यायालय में उपस्थित हो जाते हैं। क्यूंकी उनकी उपस्थिति में विलंब वाद के खारिज हो जाने की संभावना बना देती है।

2. प्रतिवादी की मृत्यु की स्थिति।

प्रतिवादी की मृत्यु पर उनके विधिक प्रतिनिधि स्वतः न्यायालय में उपस्थित नहीं होते है। साथ ही, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि प्रतिवादी की गैर-उपस्थिति की स्थिति में उनके लिखित कथन (Written Statement) को खारिज कर दिया जाए। अतः प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि वाद की समुचित जानकारी होने के बाबजुड़ भी अंतिम अंतिम समय तक उपस्थित नहीं होते है। परिणामस्वरूप, वाद की गति बाधित होती है।

3.  उत्तराधिकारियों का पता लगाने की जटिलता।  

वर्तमान व्यवस्था में प्रतिवादी के उत्तराधिकारियों की संख्या कितनी है और वे कहाँ रहते हैं, यह जानकारी एकत्र करने की जिम्मेदारी वादी पर होती है। प्रतिवादी की मृत्यु के बाद वादी को वर्षों तक उत्तराधिकारियों के नाम एवं पते की जानकारी एकत्र कसरने में लग जाती है, जिसके कारण वाद की कार्यवाही लगभग ठप हो जाती है।

4. नोटिस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति।

उपर्युक्त कठिनाइयों के कारण न्यायालय को बार-बार नोटिस जारी करना पड़ता है। यह प्रक्रिया लंबी है, जिसके परिणामस्वरूप वाद वर्षों तक लंबित रह जाता है।

5. वर्तमान प्रक्रिया की जटिलता:

  1. Order 22 Rule 4 तथा Rule 10A, C.P.C. के तहत प्रतिस्थापन की प्रक्रिया में बार-बार विलंब होता है।
  2. वाद जैसे-जैसे पुरानी होती जाती है, प्रतिवादी की उम्र भी बढ़ती जाती है, यदि प्रतिवादियों की संख्या अधिक हो, तो प्रतिवादी की मृत्यु पर यही प्रक्रिया कई बार दोहरानी पड़ती है।

6. न्यायिक समय की हानि:

i. प्रतिस्थापन प्रक्रिया में 2 वर्ष तक का समय नष्ट हो जाता है, जो त्वरित न्याय के संवैधानिक अधिकार के विपरीत है।

7. संशोधन हेतु प्रस्ताव (Dispute Eater Approach)

Dispute-Eater के अनुसार निम्नलिखित संशोधन व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 में सम्मिलित किए जाएँ—

  1. प्रतिवादी द्वारा शपथपत्र की अनिवार्यता (Order 8):

प्रतिवादी अपने लिखित कथन के साथ एक शपथपत्र प्रस्तुत करें, जिसमें—

  1. उनके सभी विधिक प्रतिनिधियों के नाम एवं पते का उल्लेख हो.
  2. यह स्पष्ट किया जाए कि प्रतिवादी ने वाद की जानकारी अपने सभी विधिक प्रतिनिधियों को दे दी है।
  1. नोटिस की आवश्यकता समाप्त करना (Order 22 Rule 4 & Rule 10A):
  2. प्रतिवादी की मृत्यु की स्थिति में उनके विधिक प्रतिनिधियों को पुनः नोटिस भेजने की आवश्यकता न रहे।
  3. प्रतिवादी के लिखित कथन के साथ प्रस्तुत किया गया शपथपत्र को ही पर्याप्त माना जाए।

Dispute Eater Theory of Judicial Reform न्याय प्रणाली में व्यवहारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। यदि व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 में सुझाए गए संशोधनों को सम्मिलित किया जाए, तो सिविल वादों के त्वरित एवं प्रभावी निष्पादन का मार्ग प्रशस्त होगा।

✍  दिलीप कुमार
(संपत्ति और परिवार के अधिवक्ता)

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