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Dispute Eater Theory of Bail.

Adv. Dilip Kumar by Adv. Dilip Kumar
September 23, 2025
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Dispute Eater Theory of Bail.
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सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय का समय किस काम के लिए?

भारतीय न्याय व्यवस्था में जमानत का प्रश्न सदैव बहस का विषय रहा है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 और 439 (वर्तमान में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 और 483) स्पष्ट रूप से यह प्रावधान करती हैं कि जमानत देने का अधिकार सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों को समान रूप से प्राप्त है। इसके बावजूद व्यवहार में अधिकांश जमानत याचिकाएँ उच्च न्यायालय की दहलीज तक पहुँच जाती हैं। इतना ही नहीं, अब तो जमानत याचिकाओं का बोझ सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचकर वहाँ की कार्यवाही को भी बाधित करने लगा है, जिससे न्यायपालिका की कार्यक्षमता पर अनावश्यक दबाव पड़ता है।

पटना उच्च न्यायालय में लगभग 50 माननीय न्यायमूर्ति कार्यरत हैं। विडंबना यह है कि उनका एक बड़ा हिस्सा अपना बहुमूल्य समय केवल जमानत अर्ज़ियों पर ही खर्च करने को विवश है। परिणामस्वरूप अपील, पुनरीक्षण, संवैधानिक महत्व के प्रश्न तथा जनहित याचिकाएँ, जो समाज और राष्ट्र के लिए कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, प्रतीक्षा सूची में अटकी रह जाती हैं।

क्या यह उचित नहीं होगा कि हत्या, बलात्कार, डकैती जैसे जघन्य अपराधों को छोड़कर शेष मामलों में जमानत का अंतिम न्यायालय सत्र न्यायालय ही घोषित कर दिया जाए? ऐसा होने पर उच्च न्यायालय का कीमती समय बच सकेगा और वह समय उन गंभीर वादों पर लगाया जा सकेगा जो जनजीवन और संविधान की आत्मा से सीधे जुड़े हैं।

न्यायपालिका पर बढ़ते दबाव और लंबित मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए यह सुधार न केवल तर्कसंगत प्रतीत होता है, बल्कि अत्यावश्यक भी है। जब तक हम ऊपरी न्यायालयों को उनकी प्राथमिक भूमिका, न्यायिक व्याख्या और जनहित की रक्षा, के लिए समय नहीं देंगे, तब तक “न्याय यदि देर से मिले यह अधूरा न्याय है” की कहावत हमारे समाज पर लागू होती रहेगी।

यह समय है कि सरकार और विधि आयोग गंभीरता से इस पर विचार करे और एक व्यावहारिक व्यवस्था लागू करे, ताकि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय वास्तव में उच्च न्याय के उद्देश्य की पूर्ति कर सके। मेरा मानना है कि जमानत प्रकरण सत्र न्यायालय तक सीमित हों, तभी होगा न्यायिक संसाधनों का सही उपयोग। यानि  डिस्प्यूट-ईटर थ्योरी ऑफ बेल इस दिशा में एक ठोस और अभिनव पहल हो सकती है। यह न केवल न्यायपालिका के बोझ को कम करेगी, बल्कि न्याय वितरण की गुणवत्ता और गति दोनों को बेहतर बनाएगी।

 

दिलीप कुमार
अधिवक्ता

 

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