विवाद और विश्वास : एक दूसरे का विरोधी भी, सहयात्री भी।
विवाद और विश्वास एक दूसरे का विरोधी भाई है और जैसे ही पहल नामक दोस्त दोनों के बीच में आ जाता है दोनों एक दूसरे के सहयात्री हो जाते है। परिवार और संपत्ति से जुड़े विवादों की जटिल दुनिया में एक प्रश्न बार-बार सामने आता है, क्या पहले विवाद समाप्त हो, तब विश्वास लौटेगा? या पहले विश्वास लौटे, तब विवाद समाप्त होगा? यह प्रश्न केवल विधिक नहीं, बल्कि गहरे मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अर्थों से जुड़ा हुआ है।
विश्वास की पहली चोट।
जब कोई विवाद जन्म लेता है, चाहे वह वैवाहिक संबंधों का हो या ज़मीन-जायदाद का, तो सबसे पहले जिस मूल्य की आहुति होती है, वह है विश्वास। विश्वास के टूटते ही संवाद कठोर हो जाता है और समाधान की संभावना धुंधली पड़ जाती है। तब समझौते की राह लंबी और कठिन लगने लगती है।
द्वंद्व का मनोविज्ञान।
यहाँ एक गहन द्वंद्व सामने आता है। कुछ लोग मानते हैं कि जब विवाद समाप्त होगा, तभी विश्वास लौट सकेगा। जबकि दूसरे का भरोसा है कि जब विश्वास बनेगा, तभी विवाद का अंत संभव होगा। यही असहमति, यही क्रम की अनिश्चितता, समझौते को टालती रहती है। दोनों पक्ष समाधान चाहते हैं, परंतु समाधान की ओर बढ़ने के पहले कदम पर सहमत नहीं हो पाते।
विश्वास और विवाद : परस्पर विरोधी परंतु अनिवार्य।
यह निर्विवाद सत्य है कि विवाद और विश्वास एक साथ नहीं रह सकते। किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि समाधान की यात्रा में दोनों की भूमिका अनिवार्य है। पहल किसी एक को करनी ही होगी, या तो विश्वास की ओर से या विवाद की ओर से।
कभी एक अविश्वास की एक छोटी-सी चिंगारी विकराल आग बन जाती है और रिश्तों की पूरी इमारत को भस्म कर देती है। वहीँ कभी-कभी विश्वास की एक छोटी-सी बूंद उस विकराल आग को शांत कर देती है। कई बार विवाद का निष्कर्ष ही विश्वास की नई नींव रख देता है, और कई बार विश्वास की पहल ही विवाद को समाप्त कर देती है।
समाधान का सूत्र।
समझौता तभी संभव होता है, जब कोई एक पक्ष पहल करे। चाहे वह विश्वास के माध्यम से हो या विवाद समाधान के परिणामस्वरूप। डिस्प्यूट-ईटर का मानना है कि पहल करने में हिचकना नहीं चाहिए। यदि आप विश्वास से शुरुआत करते हैं, तो परिणाम शीघ्र प्राप्त हो सकता है; और यदि परिणाम के बाद विश्वास लौटता है, तो यात्रा लंबी अवश्य होगी, किंतु अंततः मंज़िल तक पहुँचेगी।
समापन।
विवाद और विश्वास, दोनों विरोधी ध्रुव हैं, परंतु अधूरे भी एक-दूसरे के बिना। हमें यह समझना होगा कि समाधान की चाबी न विवाद में है, न विश्वास में, बल्कि पहल में है। पहल ही वह सेतु है, जो विवाद से विश्वास और विश्वास से समाधान की राह बनाती है।
✍ दिलीप कुमार अधिवक्ता
संस्थापक डिस्प्यूट-ईटर दर्शन
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