पारिवारिक वाद, संपत्ति संबंधी वाद और सुलहयोग्य आपराधिक वाद जिस किसी भी न्यायालय में लंबित है उसे उसी न्यायालय में समाप्त करने का प्रयास “अर्थात न्याय के पूर्ण विराम का सिद्धांत (A full stop theory of justice)” अपनाकर न्यायालय से मुकदमें के बोझ को कम किया जा सकता है।
अभी कुछ दिनों पहले भारत के प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों के साथ भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति और अन्य न्यायमूर्तिगण की बैठक सम्पन्न हुई, जिसमें न्यायपालिका से मुकदमा के बोझ को कम करने पर चर्चा हुई थी। न्यायलय से मुकदमा के बोझ को कम करने के विंदु पर न्यायपालिका और कार्यपालिका की संयुक्त बैठक संभवतः पहली बार हुई है। यह खुशी की बात है कि सरकार और न्यायालय दोनों मुकदमें की बढ़ती बोझ को कम करने के लिए चिंतित है। लेकिन केवल चिंता व्यक्त करने से न्यायालय से मुकदमा का बोझ कम नहीं हो सकता है। लाखों- लाख मुकदमों के बोझ से दबी न्यायपालिका को मुकदमे के निबटाने के लिए एक ठोस रणनीति बनानी होगी। इसमे देर होने पर आम लोगों का न्यायालय के प्रति विश्वसनीयता को प्रभावित करेगा, जो न्यायपालिका और सरकार दोनों के लिए अहितकारी होगा।
मुकदमें के त्वरित निष्पादन के लिए सबसे पहले प्रक्रिया संबंधी कानून में व्यापक बदलाव लाने की जरूरत है। वर्तमान समय में वादी को दो प्रकार में बांटा जा सकता है। एक वह जो न्यायालय में वास्तव में न्याय पाने के लिए वाद लाता है और दूसरा वह जो न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करके अपना हित साधने के लिए वाद प्रस्तुत करता है। इस प्रकार के वादों पर तत्काल रोक लगाने की जरूरत है। वर्तमान प्रक्रियागत कानून दोनों तरह के वादी को एक ही नजर से देखता है।
कुछ मामलों तो अदालत में काफी जल्दबाज़ी में पेश कर दिया जाता है। जब वादी एक बार कदम उठा लेता है, तो फिर पीछे लौटने में अपमानित महसूस करता है। अतः प्रक्रियागत विधि में संशोधन करके एक ऐसी संस्था बनाई जाये जो इस तथ्य की परीक्षा करे कि प्रस्तुत किया गए वाद में न्यायिक दिमाग की जरूरत है या नहीं। यदि न्यायिक दिमाग की जरूरत नहीं है तो उक्त वाद के दोनों पक्षकारों की कौनसेलिंग की जाये और वाद को उसी जगह पर समाप्त करने का प्रयास किया जाये। और जिस वाद में न्यायिक दिमाग की जरूरत हो उसी वाद को न्यायालय में प्रस्तुत करने की इजाजत दिया जाये।
प्रक्रिया विधि में दूसरी महत्वपूर्ण परिवर्तन करके पारिवारिक विवाद, संपत्ति-संबंधी विवाद और सुलहनीय आपराधिक विवाद को हर परिस्थिति में प्रस्तुत करने वाले प्रारम्भिक न्यायालय में ही उसे पूर्ण विराम तक पहुंचाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
इसके आलवे न्यायालय कार्य करने की अपनी परंपरागत तरीका में थोड़ा परिवर्तन करके भी मुकदमा का बोझ कम कर सकता है। उदाहरण के लिए बिहार के लगभग प्रत्येक जिले में 50-60 (यदि Tribunal, Revenue Court और Executive Magistrate को सम्मिलित कर लिया जाये तो संख्या अधिक भी हो सकती है) न्यायिक अधिकारी है। प्रत्येक न्यायालय का लंच के बाद का लगभग 01 घंटा समय “मूव मैटर” को सुनने में खर्च हो जाता है। इस प्रकार हम यह कह सकते है कि बिहार में प्रत्येक दिन न्यायालय का लगभग 2000-2500 घंटा समय “मूव मैटर” की सुनवाई में ही खर्च हो जाता है। मूव मैटर बहुत छोटा-छोटा मैटर होता है, जिसमें अधिकांश मामला न्यायालय द्वारा पारित आदेश का उसी न्यायालय के कार्यालय या संबंधित थाना द्वारा क्रियान्वयन से संबंधित होता है। इस तरह के मामलें में विधि का कोई प्रश्न अंतर्ग्रस्त नहीं होता है। न्यायालय द्वारा अपने कार्यालय सहायक को कठोर निर्देश देने मात्र से इसका निराकरण हो सकता है और प्रत्येक दिन न्यायालय का लगभग 2000-2500 घंटा का समय नियमित वाद की सुनवाई के लिए बचाया जा सकता है।
दूसरी महत्वपूर्ण तथ्य जमानत से जुड़ा है। जमानत दो प्रकार का होता है। एक गिरफ़्तारी से पूर्व और दूसरा गिरफ़्तारी के बाद। जिसका प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 और 439 में है। दोनों धारा स्पष्ट करती है कि जमानत के मामलें में सेशन न्यायालय और उच्च न्यायालय को बराबर का अधिकार है। यानि जिस मामलें मे उच्च न्यायालय द्वारा जमानत दिया जा सकता है उस मामलें में सेशन न्यायालय द्वारा भी जमानत दिया जा सकता है। पटना उच्च न्यायालय में लगभग 40 न्यायमूर्ति है जिनका अधिकांश समय जमानत संबंधी आवेदन की सुनवाई में ही खर्च हो जाता है। यदि हत्या, बलात्कार, डकैती जैसे गंभीर मामलें को छोड़कर शेष मामलें में जमानत का अंतिम न्यायालय सेशन न्यायालय ही हो, तो उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण समय बचाया जा सकता है और उस समय का उपयोग माननीय न्यायालय द्वारा Appeal, Revision, Constitutional Matters तथा जनहित से जुड़े वाद की सुनवाई में किया जा सकता है।
✍ दिलीप कुमार
अधिवक्ता
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