यदि आपके अंदर समाजसेवा का जज्बा है, तो यह लेख आपके लिए भी प्रेरक हो सकता है। यह एक सच्ची कहानी है, जिसको मैंने उसी रूप में प्रस्तुत करने का प्रायस किया हूँ जैसा कि मेरे साथ घटित हुई थी। गाली एक ऐसी चीज है जिसको देनेवाला मुफ़्त में देता है और लेनेवाला उसे लेना नहीं चाहता है। समाजसेवी को उस गाली का क्या करना चाहिए जो उसे वेवजह अपहार स्वरूप दी जाती है। इस आलेख में मैं अपना अनुभव आप लोगों के समक्ष रख रहा हूँ। वैसे यह कहानी वर्ष 2017 की है परंतु तीन वर्ष बीत जाने के बाद मैं इसे लिखने की हिम्मत जुटा कर लिख रहा हूँ।
मैं एक अधिवक्ता हूँ। वर्ष 2017 में एक दम्पत्ति मेरे पास सहमति से तलाक का केस फ़ाइल करने का निवेदन किया था। मेरे द्वारा कारण पूछने पर पत्नी नें बताई कि पति काफी गुस्सा करते है, और गुस्सा में कई-कई दिनों तक खाना नहीं खाते हैं, बात-चीत बंद कर देते है, जिससे विवाद कम होने के बजाये और बढ़ जाता है। पति का आरोप था कि उनकी आमदनी कम है, पत्नी इस बात को समझने का प्रयास ही नहीं करती है। विवाद की स्थिति में पत्नी अप्रिय बात बोलती है और संबंध बनाने से इन्कार कर देती है, जिससे स्थिति और विकट हो जाया करती है। दोनों पढे-लिखे व्यक्ति थे। मैंने उनको सलाह दिया कि आप दोनों प्रतिज्ञा करें कि :-
- आप दोनों सुबह की चाय साथ-साथ ही पीयेगें, उस दौरान आप-दोनों मोबाईल, अख़बार ईत्यादी से पूर्णतः दूर रहेंगे और केवल मीठी-मीठी बातें करेंगे।
- चाहे कितना भी गुस्सा क्यों न आयें, पति खाना नहीं छोड़ेगा.
- गुस्सा की स्थिति में भी पत्नी सम्बन्ध बनाने से ईन्कार नहीं करेंगी.
प्रतिज्ञा दिलाकर एक माह के बाद पुनः आने का सलाह दिया। एक माह बाद दोनों नें बताया कि अब संबंध ठीक चल रहा है। तब मैंने निश्चय किया कि समझौता करने के एक ऐसी संस्था बनाई जाये जिसके माध्यम से समझौता के दायरे में अधिक से अधिक व्यक्तियों को लाया जाये। वास्तव में पति-पत्नी की लड़ाई में मुद्दा का आभाव रहता है। मुद्दा विहीन लड़ाई में पक्षकार कानून को हथियार, न्यायालय को रणक्षेत्र और वकील को वजीर के रूप में इस्तेमाल करते है। ऐसे लोगों को मुकदमा के फैसला में रुचि नहीं रहती है, लड़ाई तो ईगो की होती है। वे प्रतिद्वंदी को थकाने और माफी मँगवाने में विश्वास रखते है।
मूल कहानी जो मैं आपलोगों को बताना चाहता हूँ वह यह है कि वर्ष 2017 में ही पति-पत्नी के विवाद से संबंधित दूसरा मामला मेरे समक्ष आया। मैंने सोचा कि इस समस्या को भी बात-चीत द्वारा ही समाप्त कर देंगे। मैं बहुत उत्साहित था। लेकिन मैं इस बात से पूर्णतः अनभिज्ञ था कि संस्था बनाने से पहले गाली सुनने का समय नजदीक आ रहा है। मैं आधी-अधूरी जानकारी लेकर बिहार सरकार में प्रतिष्ठित पद पर कार्यरत एक अधिकारी के घर पहुँच गये, समझौता करवाने के लिए! दरवाजा खुली मैं अंदर गया। मुझे सोफ़ा पर बैठने को कहा गया। उस समय घर में पति के आलवे एक बूढ़ा नौकर था। पति शराब पी रखा था। पति स्वयं जूस लेकर आया। वह पहले मुझे “आप” शब्द से संबोधित किया, बाद में “तुम” कहने लगा। मैं कुछ-कुछ समझ रहा था कि मैं मुसीबत में फस रहा हूँ! कुछ ही समय में पति जोड़-जोड़ से बोलने लगा, भोजन टेबल पर रखी गई वस्तुएं इधर-उधर फेंकने लगा और मुझे गाली देने लगा। मैंने तो उम्मीद भी नहीं किया था कि मुझे गाली सुनने को मिलेगा। मुझे ईतनी भद्दी-भद्दी गालियां दी गई, जिसकी कल्पना मैंने स्वप्न में भी नहीं किया था, कुछ गाली तो मैं पहली बार सुना था। मैं इस बात से भयभीत था कि यदि उसके पास पिस्टल हो तो मेरा काम ही तमाम कर देगा। घर की बनावट ऐसी थी कि अंदर की कोई बात बाहर नहीं आ रही थी। मैं बाहर नकलने का निर्णय किया। मैं दरवाजा खोलकर बाहर निकला और दरवाजा को बाहर से लगा दिया। बाहर गेट में ताला लगा था। उसके द्वारा दिए गये गाली में से एक भी गाली मैंने नहीं लिया, बल्कि उसको जस-का-तस वही छोड़कर मैं तुलसी-चउरा के सहारे लगभग 06 फीट ऊंची चहारदीवारी को फांदकर सड़क पर आया। मैं इतनी जल्दबाजी में था कि गाड़ी स्टार्ट करने के लिए इग्निशन न दबाकर, बार-बार हॉर्न ही दबाता था। मैं कुछ देर में अपने घर पहुंचा। लंबी-लंबी साँसे लिया और कहानी परिवार में बताया।
मैंने जिस-जिस व्यक्ति को यह कहानी सुनाया सबों ने एक स्वर में कहा “गाली तो समाजसेवी का शृंगार होता है”।
✍️ दिलीप कुमार
अधिवक्ता
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