विवाद वर्ष 2015 से चली आ रही थी। शहर के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक और उभरते हुते राजनेता के बीच विवाद उत्पन्न हो गया था। दोनों की बीच का विवाद पुलिस थाना होते हुए न्यायालय तक पहुँच गया था। यह लड़ाई दोनों के बीच अहं (ईगो) के आलवे कुछ नहीं था। कोई झुकने को तैयार नहीं था। वर्ष 2019 में मामला ट्रस्ट के संज्ञान में आया। ट्रस्ट नें एक-एक कर दोनों पक्षों से संपर्क किया। ट्रस्ट की ओर से मैंने राजनेता से लगभग 10 बार फोन पर बात किया। मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं है कि मैंने जितनी बार उक्त राजनेता से संपर्क किया मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था। अनेकों बार समझौता कराने का प्रयास त्याग देने का विचार आया। परंतु समझौता कराने का प्रयास यदि विफल हो जाता है तो ट्रस्ट किसी पक्ष को दोषी नहीं मानता है, बल्कि असफल होने का दोष अपने ऊपर लेता है, जो मैं लेना नहीं चाहता था। ट्रस्ट नें अपनी रणनीति बदली। एक अधिवक्ता जिनकी राजनेताओं के बीच अच्छी पैठ है, को उक्त उभरते हुए राजनेता के अधिवक्ता के रूप में नियुक्त करवाने में सफल हो गया और उनके प्रयास से ट्रस्ट दोनों पक्षों के बीच समझौता करवाने में सफल हो गया। समझौता पर न्यायालय की मुहर लगने के बाद ट्रस्ट की ओर से मैंने उक्त राजनेता से पूछा: –
ट्रस्ट:- मैंने जितनी बार आपको फोन किया, मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था। ट्रस्ट के प्रयास से बिना किसी खर्च के आपका वाद समाप्त हो गया है, बताइए अब आपको कैसा लग रहा है?
राजनेता:- अपने चेहरे पर सकुन भरी मुस्कान के साथ “बहुत अच्छा”! अब आपको फोन करने की कोई जरूरत नहीं होगी मैं खुद फोन करके आपके कार्यालय में आऊँगा। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
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