अपनी पत्नी को मासिक भरण-पोषण के साथ-साथ बकाया भरण-पोषण/भत्ते का भुगतान के न्यायिक आदेश की अवहेलना पति को महंगा पड़ा। दिनांक 22.03.2021 के आदेश में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि, ”हम पहले ही पति को काफी लंबा समय दे चुके हैं, पति ने उक्त अवसरों का उपयोग नहीं किया है। इसलिए, हम इस अदालत की अवमानना के लिए पति को दंडित करते हैं और उसे तीन महीने के सिविल कारावास की सजा देते हैं”। वास्तव में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पति को एक आखिरी मौका दिया था ताकि वह भरण-पोषण भत्ते की सारी बकाया राशि का भुगतान कर सके और कोर्ट द्वारा पूर्व में तय किए गए मासिक भरण-पोषण का भुगतान भी शुरू कर दे। शीर्ष अदालत ने कहा था कि एक पति अपनी पत्नी को भरण-पोषण देने की जिम्मेदारी को त्याग नहीं सकता है और यह उसका कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी को भरण-पोषण का भुगतान करे।”। पति दूरसंचार क्षेत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा की एक परियोजना पर काम करता है, उसने न्यायालय को कहा था कि उसके पास पैसे नहीं हैं, उसने पूरी राशि का भुगतान करने के लिए दो साल का समय मांगा था परंतु उक्त अवधि में भी राशि का भुगतान नहीं किया। शीर्ष अदालत ने कहा कि पति ने अदालत के आदेश का पालन करने में बार-बार विफल होकर अपनी विश्वसनीयता खो दी है और आश्चर्य की बात है कि इस तरह के मामले से संबंधित व्यक्ति कैसे राष्ट्रीय सुरक्षा की परियोजना से जुड़ा है।
पत्नी ने वर्ष 2009 में चेन्नई में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट अदालत के समक्ष घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम के तहत मामला दायर किया था। ट्रायल कोर्ट द्वारा पति को निर्देशित किया गया था और अपीलीय अदालत व हाईकोर्ट ने भी पत्नी को दो हेड के तहत पैसा देने का निर्देश दिया था। जिसमें 1.75 लाख रुपये का मासिक भरण-पोषण शामिल है और दूसरा वर्ष 2009 से भरण-पोषण का बकाया शामिल है, जिसकी राशि लगभग 2.60 करोड़ रुपये है। अदालत ने पत्नी को तब तक घर में रहने की अनुमति दी थी जब तक कि पति उसके स्थायी निवास के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं कर देता है। इस आदेश के खिलाफ पति द्वारा दायर अपील पर सत्र अदालत ने पत्नी को मुआवजा देने के निर्देश को रद्द कर दिया था और भरण-पोषण की राशि को भी कम कर दिया था। अपीलीय अदालत ने उसे याचिका दायर करने की तारीख से भरण-पोषण के रूप में प्रति माह 01 लाख रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया था और उक्त तिथि से ही आवासीय निवास के लिए 75,000 रुपये प्रति माह देने के लिए भी कहा था। हाईकोर्ट ने 02 दिसंबर, 2016 को सत्र न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, जिसके बाद पति ने शीर्ष अदालत में अपील दायर की, जिसे शीर्ष अदालत ने 26 अक्टूबर, 2017 को खारिज करते हुए निर्देश दिया था कि वह छह महीने के भीतर वह भरण-पोषण और बकाया राशि को भुगतान कर दे। तत्पश्चात पत्नी द्वारा 2018 में एक रिव्यू याचिका दायर की गई और पति को हर महीने के 10 वें दिन तक 1.75 लाख रुपये के भरण-पोषण का बकाया चुकाने का निर्देश दिया गया था। पति द्वारा न्यायालय के आदेश को नहीं मानना को न्यायालय का अवमानना माना और उपरोक्त आदेश सुनाया।
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