जगजाहिर है कि सिविल प्रकृति के वाद की अवधि काफी लंबी होती है। दादा द्वारा प्रस्तुत किया गया वाद पोता की जिंदगी में भी न्याय की राह देख रहा होता है। अवधि विस्तार के लिए बहुत से कारण है, जिसमें सबसे अधिक जवाबदेह मुकदमा के दौरान प्रतिवादी की मृत्यु को रखा जा सकता है। व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 नियम 04 में यह प्रावधान किया गया है कि प्रतिवादी की मृत्यु होने पर, वादी को मृत्यु के 90 दिन के अंदर मृतक के विधिक प्रतिनिधि का नाम अभिलेख पर लाने हेतु आवेदन प्रस्तुत करना होता है। वर्तमान समय में वादी और प्रतिवादी एक दूसरे के पारिवारिक सदस्यों को पूर्ण रूप से नहीं जानते है। वादी को काफी समय मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधिओं के नाम और निवास स्थान की जानकारी हासिल करने में बीत जाता है। जब मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि का नाम अभिलेख पर आ जाता है, तत्पश्चात न्यायालय द्वारा उनकी उपस्थिति हेतु सम्मन निर्गत किया जाता है और इस दौरान वाद की कार्रवाही स्थगित रहती है। इस कार्य में सामान्यतः 02 वर्ष का समय व्यतीत हो जाता है। कभी-कभी तो एक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि की उपस्थिति के दौरान ही दूसरे प्रतिवादी की मृत्यु हो जाती है और वादी को पुनः उसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इस प्रक्रिया में वादी पर काफी अधिक आर्थिक बोझ पड़ता है और वाद निबटारा की अवधि बढ़ती चली जाती है।
राम यतन शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट का मानना है कि जैसे ही मूल प्रतिवादी न्यायालय में पहली बार उपस्थित होता है, उनसे ईस तथ्य का शपथ – पत्र ले लिया जाना चाहिए कि:-
“मेरे अमुक – अमुक विधिक प्रतिनिधि है, उनके नाम और पता अमुक – अमुक है। मैं अपने सभी विधिक प्रतिनिधि/प्रतिनिधियों को ईस वाद की सूचना दे दी है। मेरे नहीं रहने के बाद मेरे विधिक प्रतिनिधि/प्रतिनिधियों को ईस वाद की सूचना देने की कोई आवश्यकता नहीं है।”
वादी की मृत्यु के बाद उनके विधिक प्रतिनिधि स्वतः न्यायालय में उपस्थित है। उन्हें न्यायालय से कोई सम्मन नहीं जाता है यही नियम प्रतिवादी पर भी लागू होना चाहिए। इससे न्यायालय का महत्वपूर्ण समय बचाया जा सकता है।
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