शादी के कुछ ही दोनों बाद विवाद हो गया। कारण भी अनोखा था। जब मैंने विस्तार से कारण पूछा, तो बहू ने बताया कि हाल ही में उसकी शादी हुई है और सासु मां अपनी बहु के पहनावा को लेकर गुस्सा करते है। दूसरी शिकायत यह थी कि उसे खाना बनाना विलकुल पसंद नहीं है। सास को यह व्यवहार अस्वीकार्य लगा और उन्होंने इस पर बहू को बुरा-भला कह दिया। बहू का पक्ष यह था कि कपड़ा में क्या रखा है, अपने मायेका में तो अपने पिता और परिवार के अन्य सदस्यों के समक्ष भी हॉट पैंट पहनती थी। कभी उसके पिता को किसी तरह की आपत्ति नहीं हुई। जहां तक खाना बनाने की बात है तो खाना बहु ही क्यों बनाएगी?
मेरा मानना है कि भारतीय समाज में परंपरा और आधुनिकता का द्वन्द एक आम दृश्य है। यह द्वन्द तब और अधिक स्पष्ट हो जाता है जब हम महिलाओं की स्वतंत्रता और सामाजिक भूमिका की बात करते हैं। विशेषकर तब जब वही महिला, एक घर में पहले बेटी के रूप में और फिर बहू के रूप में प्रवेश करती है। एक ही महिला के लिए दो अलग-अलग व्यवहारों और उम्मीदों का यह फर्क, केवल रिश्तों की परिभाषा से उपजता है, जो कि हमारे सामाजिक नजरिये की एक गहरी खामी को उजागर करता है।
जब कोई लड़की बेटी होती है, तब उसके पहनावे, चाल-ढाल, यहां तक कि स्वतंत्रता के मामलों में भी घरवालों का नजरिया अपेक्षाकृत उदार होता है। बेटी यदि मोटरसाइकिल पर दोनों ओर पैर फैलाकर बैठती है, तो वह सहज और सामान्य माना जाता है। वह यदि हॉट पैंट पहनती है, तो हम कहते हैं – “आजकल की लड़कियाँ के लिए यह आम बात हो गई है।” लेकिन यही लड़की जब बहू बनकर आती है, तो हमारे मानदंड अचानक बदल जाते हैं। अब उससे उम्मीद की जाती है कि वह साड़ी के पल्लू में ढँकी रहे, संकोच और शर्म का आवरण ओढ़े, और चाल-ढाल में ‘संस्कार’ की झलक हो।
प्रश्न यह उठता है — क्या रिश्ते बदलते ही स्त्री का पहनावा भी बदल जाना चाहिए? क्या स्त्री वे सभी वस्त्र, जो वह विवाह से पूर्व पहनती थी, विवाह के बाद नहीं पहन सकती? आजकल भारतीय समाज में यह देखने को मिलता है कि एक स्त्री को वे कपड़े, जो वह अपने मायके में सहजता से पहनती थी, ससुराल में पहनने की अनुमति नहीं होती।
बेटी अपने पिता के घर में आधुनिक और तंग कपड़े पहनना प्रारंभ कर देती है, पिता को किसी तरह की आपत्ति नहीं होती है। किंतु वही वस्त्र उसे ससुराल में पहनने की इजाज़त नहीं होती। आज का भारतीय समाज बहू के लिए पारंपरिक वस्त्रों को ही स्वीकार्य मानता है। यदि हम अपनी बेटी को आधुनिक वस्त्र पहनने की स्वतंत्रता देते हैं, तो हमें अपनी बहू के लिए भी समान उदारता दिखानी चाहिए।
बहू से यह अपेक्षा करना कि वह पारंपरिक कपड़े पहने, पारंपरिक ढंग से बोले-बर्ताव करे, और हर क्षण मर्यादा का पालन करे। यह अपेक्षा अनुचित है। यह दोहरापन केवल एक सामाजिक असंगति नहीं है, बल्कि महिलाओं की अस्मिता के प्रति हमारे दृष्टिकोण का प्रतिबिंब है।
बेटी को हम इसलिए स्वतंत्रता देते हैं क्योंकि वह “अपनी” होती है, जबकि बहू को सीमाओं में बांध देते हैं क्योंकि वह “बाहरी” मानी जाती है, जिसे हमारी परंपराओं में ढलना चाहिए। इस मानसिकता में परिवर्तन की आवश्यकता है।
हमें यह समझना होगा कि कपड़े, चाल-ढाल, या मोटरसाइकिल पर बैठने का तरीका किसी के चरित्र या संस्कार का प्रमाण नहीं होते। संस्कार वे होते हैं जो किसी के आचरण, व्यवहार और सोच में प्रकट होते हैं — न कि साड़ी के पल्लू की लंबाई में।
हालांकि आज का आधुनिक भी समाज बहू को हाफ पैंट्स में देखना स्वीकार नहीं करता, इसलिए जहां तक संभव हो, बेटी को भी ऐसे वस्त्रों से परहेज़ करना चाहिए। पारिवारिक विवादों में कपड़ों का महत्व अहंकार से कम नहीं होता, और एक छोटी-सी बात भी बड़े विवाद की नींव बन सकती है।
✍ डिस्प्यूट-ईटर
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